Main Slideजीवनशैलीराष्ट्रीयव्यापार

किसान गरीब क्यों ? किसान परिवार में आत्महत्या क्यों ? आखिर कौन देगा जवाब

देश में किसानों की औसत मासिक आय 6,426 है रुपए

किसान गरीब क्यों? किसान परिवार में आत्महत्या क्यों? इन सवालों का जवाब दशकों से ढूंढा जा रहा है। बड़े-बड़े रिपोर्ट तैयार किए गए। कई लागू किए गए। लेकिन आजतक किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए जो उपाय किए गए उससे समाधान नहीं हुआ बल्कि संकट गहराता जा रहा है। किसानों की आर्थिक हालात लगातार बिगड़ती जा रही है। क्या हम किसानों की समस्याओं का सही कारण नहीं खोज पाए या खोजना ही नहीं चाहते?

सरकारी आकड़ों के अनुसार, देश में किसानों की औसत मासिक आय 6,426 रुपए है। जिसमें खेती से प्राप्त होनेवाली आय केवल 3081 रुपये प्रतिमाह है। यह 17 राज्यों में केवल 1700 रुपए मात्र है। हर किसान पर औसतन 47000 रुपयों का कर्ज है। लगभग 90 प्रतिशत किसान और खेत मजदूर गरीबी का जीवन जी रहे हैं। जो किसान केवल खेती पर निर्भर हैं उनके लिये दो वक्त की रोटी पाना भी संभव नहीं है। खेती के काम हो, बिमारी हो, बच्चों की शादी हो या कोई अन्य प्रासंगिक कार्य किसान को हर बार कर्ज लेने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता नही बचता। यह जानते हुए भी कि उसकी आय कर्ज का ब्याज लौटाने के लिये भी पर्याप्त नहीं है।

नैनीताल के पहाड़ी गांव के किसान ।

राजनेता और नौकरशाह अपना वेतन तो आवश्यकता और योग्यता से कई गुना अधिक बढ़ा लेते हैं लेकिन किसान के लिए उसे दिन के 8 घंटे कठोर परिश्रम के बाद भी मेहनत का उचित मूल्य न मिले ऐसी व्यवस्था बनाये रखना चाहते हैं। पूरे देश के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर आकलन करें तो खेती में काम के दिन के लिए केवल औसत 92 रुपये मजदूरी मिलती है। यह मजदूरी 365 दिनों के लिये प्रतिदिन 60 रुपए के आसपास पड़ती है। किसान की कुल मजदूरी से किराये की मजदूरी कम करने पर दिन की मजदूरी 30 रुपए से कम पड़ती है। मालिक की हैसियत से तो किसान को कुछ मिलता ही नहीं, खेती में काम के लिए न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आकड़े भी इसी की पुष्टि करते हैं। केवल खेती पर निर्भर किसान परिवार का जीवन संभव नहीं है।

सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि बाजार में विकृति पैदा न हो इसलिए वह किसान को फसल का उत्पादन खर्च पर आधारित दाम नहीं दे सकती। महंगाई न बढे, उद्योगपतियों को सस्ते कृषि उत्पाद मिले, अंतरराष्ट्रीय बाजार में आयात निर्यात स्पर्धा बनी रहे, विश्व व्यापार संगठन के शर्तो को निभा सके इसलिए वह कृषि फसलों की कीमत नहीं दे सकती। स्पष्ट है कि अन्य सभी को फायदा पहुंचाने और बाजार में विकृति पैदा न हो इसलिए किसान का शोषण किया जा रहा है।

उत्तराखंड के खेतिहर मजदरों की हालत में धीमा हुआ सुधार । ( फोटो – फ्लिकर / विजय पांडेय)

बाजार व्यवस्था खुद एक लूट की व्यवस्था है। जो स्पर्धा के नाम पर बलवान को दुर्बल की लूट करने की स्वीकृति के सिद्धांत पर खड़ी है। बाजार में विकृति पैदा न होने देने का अर्थ किसान को लूटने की व्यवस्था बनाए रखना है। जब तक किसान बाजार नामक लूट की व्यवस्था में खड़ा है उसे कभी न्याय नहीं मिल सकता। बाजार में किसान हमेशा कमजोर ही रहता है। एकसाथ कृषि उत्पादन बाजार में आना, मांग से अधिक उत्पादन की उपलब्धता, स्टोरेज का अभाव, कर्ज वापसी का दबाव, जीविका के लिए धन की आवश्यकता आदि सभी कारणों से किसान बाजार में कमजोर के हैसियत में ही खड़ा होता है।

कृषि की पूरी व्यवस्था किसान को लूटने और उसे गुलाम बनाये रखने के लिये बनाई गई है। खेती से जुड़ी हर गतिविधियों में उसको लूटा जाता है। उनके लिए किसान एक गुलाम है जिसे वह उतना ही देना चाहते हैं जिससे वह पेट भर सके और मजबूर होकर खेती करता रहे। इसी के लिए कृषि नीतियां और आर्थिक नीतियां बनाई गई हैं और देश के नीति निर्धारक इसे बनाए रखना चाहते हैं। जब तक सत्ता में बैठे लोग किसान को मनुष्य नहीं सस्ते मजदूर के हैसियत से देखते हैं और उसके तहत नीतियां बनाते हैं तब तक न ही किसान अपने बल पर कभी खड़ा हो पाएगा और न ही उसे कभी जीने का अधिकार प्राप्त हो सकता है।

किसान का मुख्य संकट आर्थिक है। किसानों की समस्याओं का समाधान केवल उपज का थोड़ा मूल्य बढ़ाकर नहीं होगा बल्कि उसे किसान के श्रम का शोषण, लागत वस्तु के खरीद में हो रही लूट, कृषि उत्पाद बेचते समय व्यापारी, दलालों द्वारा खरीद में या सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद में की जा रही लूट, बैंकों, बीमा कंपनियों द्वारा की जा रही लूट इन सबको बंद करना होगा। जहां जहां उसका शोषण किया जा रहा है वहां वहां लूट के हर रास्ते बंद करने होंगे और अपने अधिकार को सुरक्षित रखने वाली व्यवस्था बनानी होगी।

(इनपुट – आईएएनएस)

Tags
Show More

Related Articles

Back to top button
Close
Close