मोदी का रणनीतिक दृष्टिकोण : आकांक्षा और वास्तविकता में अंतर
इस पृष्ठभूमि के उलट भारत जिस तरह से प्रमुख शक्तियों से खुद को जोड़ रहा है और जो इसकी रणनीति है, उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक जून को सिंगापुर में आयोजित शांगरी-ला वार्ता के दौरान बताया गया। लंदन स्थित थिंकटैंक द्वारा 2001 में शुरू किया गया यह वार्षिक अंतर-सरकारी सम्मेलन एशिया-प्रशांत राजनीतिक नेतृत्व और क्षेत्रीय सैन्य, राजनयिक, अकादमिक, विश्लेषक समुदाय को एक साथ लाता है।
मोदी का संबोधन व्यापक बहु-संस्कृतियों व भाषाओं वाले देशों के मूल्यों के प्रति भारतीय प्रतिबद्धता के ठोस धरातल के समर्थन के साथ था।
यह नेहरू के राजनीति में शुरुआती वर्षों की याद दिलाता है, जब अपेक्षाकृत कमजोर भारत ने मौजूदा शीत युद्ध से दूर रहने की मांग की और खुद को ‘गुटनिरपेक्ष’ राष्ट्र के रूप में पहचाने जाने का फैसला किया था। हकीकत यह थी कि 1970 के दशक में अमेरिका-चीन के मेल-मिलाप के बाद भारत यूएसएसआर के करीब गया और रूस के साथ इसका बहुत ही मजबूत सैन्य आपूर्तिकर्ता वाला संबंध स्थापित हुआ।
दिसंबर 1991 में हालांकि सोवियत संघ के पतन के बाद वैश्विक रणनीतिक ढांचे में काफी बदलाव आया और वर्ष 1992 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारत ने अपने आर्थिक उदारीकरण और अमेरिका के साथ अपने रंजिशजदा संबंधों को बेहतर बनाने की शुरुआत की, जिसे नरसिम्हा के उत्तराधिकारियों अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह ने जारी रखा और यही विरासत अब मोदी को मिली है।
पिछले कुछ सालों में एक धारणा रही कि भारत घमंडी चीन द्वारा भड़काए तनाव के कारण अमेरिका के करीब आ गया था (यहां उस घटना को याद करना उचित लगता है कि भारत ने अक्टूबर 1962 में अमेरिका से मदद मागी थी और मई 1998 में समर्थन मांगा था) और भारत-रूस द्विपक्षीय संबंध भी प्रभावित हो गए थे।
मोदी ने अपने संबोधन में संकेत दिया कि भारत सभी प्रमुख शक्तियों जैसे अमेरिका, चीन, रूस और जापान के साथ एक मजबूत जुड़ाव चाहता है और आसियान गुट भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के लिए महत्वपूर्ण है।
भारत-प्रशांत विस्तारित समुद्री क्षेत्र में नई दिल्ली की अपनी प्रासंगिकता है। अमेरिका द्वारा इसका समर्थन किया गया है, जिसने हवाई में अपने प्रशांत कमान का नाम बदलकर भारत-प्रशांत कमान रख दिया था।
जापान के साथ द्विपक्षीय संबंध को महान उद्देश्य वाली साझेदारी के रूप में वर्णित किया गया है, जो भारत की एक्ट ईस्ट नीति की आधारशिला है।
वहीं, दिल्ली-मॉस्को संबंधों पर बात की जाए तो मोदी ने एक बार कहा था, यह हमारी रणनीतिक कुशलता का एक प्रमाण है कि रूस के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त हो गई है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ (मई के अंत में) सोची में एक अनौपचारिक बैठक मौजूदा समय की चुनौतियों से निपटने के लिए एक मजबूत बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को विकसित करने की दिशा में दोनों देशों की आकांक्षा पर आधारित थी।
चीन के साथ डोकलाम गतिरोध, बेल्ट एंड रोड पहल (बीआरआई) पर असहमति और आतंकवाद पर पाकिस्तान को समर्थन जैसे तनावों के बावजूद मोदी ने बहुत ही कारगर तरीका निकालते हुए कहा था, चीन के साथ भारत के संबंधों में जितनी परतें हैं, उतनी और किसी देश के साथ संबंधों में नहीं हैं।
वहीं, रणनीतिक स्वायत्तता और बहु-ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था के लिए भारत की प्राथमिकता ईमानदार और वांछनीय है, लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि परमाणु हथियार की स्थिति के बावजूद दिल्ली एक असंगत शक्ति बना हुआ है। दो कठोर संकेतक इस विसंगति को दर्शाते हैं।
सबसे पहले मानव सुरक्षा के संबंध में बात करें, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सर्वोच्च राजनीतिक उद्देश्य होता है। यहां भारत खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) के विश्वसनीय सूचकांक तक पहुंचने और अपने बच्चों को उपयुक्त शिक्षा प्रदान करने में असमर्थ है, जिनकी संख्या करोड़ों में है। जहां दिल्ली स्वयत्तता की बात करती है और मोदी मेक इन इंडिया का नारा लगाते हैं, वहीं स्थिति यह है कि भारत अभी भी आयात पर निर्भर है, जिसमें अधिकांश हिस्सा इसकी सैन्य आपूर्ति का है।
स्वदेशी रक्षा निर्माण पारिस्थितिकी तंत्र की वास्तव में कल्पना की गई है और यह असलियत से कोसों दूर है। चार बार रक्षा मंत्रियों का बदलाव शासन और राजनीतिक ढ़ संकल्प का एक कमजोर संकेत पेश करता है। अगर मोदी के दृष्टिकोण को वास्तव में सिद्ध किया जाना है तो भारत की लंगड़ाती आकांक्षाओं को प्रभावी ढंग से दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है।