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लोकतंत्र से बची है भारत की राजनीतिक अस्मिता

नई दिल्ली, 12 दिसंबर (आईएएनएस)| भारत में विरोध और किसी न किसी हिस्से में लगातार दंगे-फसाद के बावजूद देश की एक राजनीतिक सत्ता क्यों बरकरार है? एक शब्द में उत्तर है, लोकतंत्र।

भारत में लोकतंत्र का प्रयोग अप्रतिम रहा है। यह न सिर्फ निर्वाचक वर्ग के आकार और राजनीतिक दलों की संख्या को लेकर है, बल्कि यह उपयोगी बन गया है और इसका भारतीयकरण हो चुका है। संसदीय लोकतंत्र का वेस्टमिन्स्टर मॉडल रायसीना मॉडल में परिवर्तित हो गया है। चुनाव प्रक्रिया व वोट बैंकों के जरिये सुधार लाकर सामाजिक समता का लक्ष्य का हासिल किया गया न कि प्रत्यक्ष व एकपक्षीय शासनात्मक कार्रवाई की गई, जोकि इतिहास में आमतौर पर देखने को मिलता है। मिसाल के तौर पर तुकी के राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क ने अपने कार्यकाल में तुर्की में सुधार लाया था।

प्राचीन भारत में लोकतंत्र के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। आज के उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों में उस समय गणतंत्र थे। उन राज्यों में कोई राजा नहीं, बल्कि शासक हुआ करते थे, जोकि एक प्रकार का कुलीनतंत्र था। वहां सारी जनता शासकों को नहीं चुनती थी।

वाकई वर्गीकृत सामाजिक व्यवस्था में शासकों के चुनाव का समान अधिकार का विचार अनोखा होगा। वे राजतंत्र के बजाय कुलीन तंत्र और लोकतंत्र के बजाय गणतंत्र थे। पचायतों में भी, चाहे वह किसी जाति की पंचायत हो या फिर गांव की, वृद्ध एवं ज्यादा शक्तिशाली आदमी पंच होते थे। आज हम वैसा ही खाप पंचायतों में देखते हैं। खाप पंचायतें एक जाति के बुजुर्गो व श्रेष्ठ लोगों की कमेटियां हैं जो उस जाति के सदस्यों के अच्छे व्यवहार के दस्तूर तय करती हैं। लोकतंत्र गंणतंत्रवाद से बिल्कुल अलग है। ग्रेट ब्रिटेन गणतंत्र होने के बावजूद एक लोकतंत्र है।

संविधानसभा के सदस्यों का सबसे विलक्षण कार्य सर्वजनीन वयस्क मताधिकार प्रदान करने का फैसला था। सदस्य खुद भी एक निर्वाचक मंडल के जरिये चुने गए थे, जो बहुत ज्यादा प्रतिबंधित था। सर्वजनीन वयस्क मताधिकार के विरुद्ध कई दलीलें दी गईं।

उदारण के तौर पर निरक्षरता, क्योंकि स्वतंत्रता के समय भारत में महज 12 फीसदी लोग ही साक्षर थे। वर्तमान में देश की साक्षरता दर 75 फीसदी है। इसके अलावा 1947 तक पूरी दुनिया में कुछ ही देशों ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया था। यूके में 1928 में महिलाओं को पूरा मताधिकार प्रदान किया गया था, जबकि फ्रांस में 1946 में दिया गया। भारत ने शीघ्र ही महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया, जबकि इससे पहले उनके पास कोई तजुर्बा नहीं था।

उच्च या निम्न जाति, सवर्ण और दलित, आदिवासी देश के सभी नागरिकों को वयस्क होने पर मताधिकार प्रदान किया गया। रामराज्य की पुरानपंथी कल्पना में कभी ऐसी समानता को स्वीकृति नहीं दी गई होगी। यह एक बड़ा समतावादी कदम था।

पूर्ण वयस्क मताधिकार के साथ लोकतंत्र को तरजीह देना कोई एक हादसा नहीं था। आधिकारिक सुधारों में मताधिकार को प्रतिबंधित रखा गया था। लेकिन 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद महात्मा गांधी ने इस पार्टी को विशिष्ट वर्गो की पार्टी से बदलकर जनसामान्य की पार्टी बना दी थी। उनके संचालन में कांग्रेस ने स्थानीय स्तर पर पार्टी के सभी सदस्यों को उच्च पदों पर अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए वोट डालने का अधिकार प्रदान किया था। कांग्रेस ने अपने सदस्यों से को चार आना यानी 24 पैसे की सदस्यता शुल्क लेकर उन्हें वयस्क मताधिकार प्रदान किया था। जाहिर है कि जब कांग्रेस सत्ता में आई तो यह (वयस्क मताधिकार) सबको प्रदान किया गया।

दूसरा कारक भी था, जिसे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कम महत्व दिया गया। यह राजनीतिक दलों के नेताओं अनुभव था, जो उन्होंने आधिकारिक विधानमंडलों में हिस्सा लेने से प्राप्त किया था। उनमें गोपाल कृष्ण गोखले, सर श्रीनिवास शास्त्री, चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू और विट्ठलभाई पटेल जैसे अनुभवी व संसदीय मामलों में दक्ष व्यक्ति थे।

निर्वाचक वर्ग छोटे थे और चयनित भारतीय लोगों के पास कम शक्ति थी। एजेंडा कार्यकारिणी के नियंत्रण में होता था (जो स्वतंत्र भारत में अभी भी बरकरार है)। लेकिन संसदीय कार्य में हिस्से लेने वाले नेताओं ने विधेयक बनाने, पास करने, बजट पर बहस करने जैसे और भी कई प्रकार की जानकारी हासिल की थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1921 में संवैधानिक व आंदोलनकारी पक्षों के बीच अल्पकालिक बिखराब हुआ था, जब गांधी ने अहसयोग का आह्वान किया और 1937 में कांग्रेस ने विधानमंडल में हिस्सा लिया था।

उस दौरान कांग्रेस नेता सी. आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी का गठन करने के बाद निर्वाचन में हिस्सा लिया था। दरअसल, स्वतंत्रता प्राप्त के समय अनेक नेता संसदीय मामलों में अनुभवी हो गए थे। जैसे हर बिलास सारडा ने अधिनियम पार करवाकर समाजिक सुधार का लक्ष्य हासिल किया था। सारडा विधेयक केंद्रीय विधानसभा में 1927 में प्रस्तुत किया गया था और उसे 1929 में पास किया गया, जिसके माध्यम से बाल विवाह पर रोक लगाई गई। भारत ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र को अपनाने के लिए तैयार था।

(लेखक प्रख्यात बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और 1971 से ब्रिटिश लेबर पार्टी के सदस्य हैं। पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया की अनुमति से देसाई की पुस्तक ‘द रायसीना मॉडल’ का अंश)

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